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बात अडानी तक नहीं

विदेशी मीडिया में आ रही प्रतिक्रियाओं पर गौर करें, तो यह साफ है कि वहां सवाल भारत की विनियामक व्यवस्था पर उठाए जा रहे हैं। रेटिंग एजेंसियों की प्रतिक्रिया आ रही प्रतिक्रियाओं को देखते हुए यह साफ है कि ये सवाल और गहराएंगे।

बीते 24 जनवरी को हिंडनबर्ग रिसर्च की तरफ अडानी ग्रुप के बारे में रिपोर्ट जारी करने से मची उथल-पुथल अब सिर्फ इसी उद्योग समूह का संकट नहीं रह गई है। बल्कि अब यह भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़ी चुनौती बनती जा रही है। विदेशी मीडिया में आ रही प्रतिक्रियाओं पर गौर करें, तो यह साफ है कि वहां सवाल भारत की विनियामक व्यवस्था पर उठाए जा रहे हैं। रेटिंग एजेंसियों की प्रतिक्रिया आने के बाद ये सवाल और गहराएंगे। गौरतलब है कि जहां रेटिंग एजेंसी फिच ने अडानी ग्रुप के बारे में अपना आकलन बदलने की जरूरत अभी नहीं समझी है, वहीं एसएंडपी ने इस ग्रुप की कई कंपनियों की रेटिंग निगेटिव कर दी है, जबकि मूडीज ने कुछ गंभीर टिप्पणियां की हैं। दरअसल, इस प्रकरण में बने भरोसे के संकट के विदेशी निवेशकों खुल कर यह कह रहे हैं कि भारतीय कंपनियों में धन लगाना सुरक्षित नहीं है।

अगर इस धारणा को नियंत्रित करने के लिए तुरंत कुछ जरूरी और प्रभावी कदम नहीं उठाए गए, तो अडानी ग्रुप की कहानी उस नवोदित भारत की कहानी में एक बड़ा छेद बन जाएगी, जिसे दुनिया भर में प्रचारित करने की कोशिश की जाती रही है। चीन से पश्चिमी देशों के बढ़ते टकराव के बीच इस पश्चिमी कारोबारी कहानी को स्वीकार करने की सहज प्रवृत्ति दिखा रहे थे। वे इस बात को नजरअंदाज करने को तैयार थे कि यह इंडिया स्टोरी असल में भारत के सीमित तबकों की समृद्धि की कहानी है, जो दुर्दशा के समुद्र में महज एक द्वीप की तरह हैं। लेकिन धारणा यह बन रही है कि उस द्वीप की चमक भी वास्तविक नहीं है। नरेंद्र मोदी सरकार और भारतीय जनता पार्टी को अगर सचमुच भारत की चिंता है, तो उन्हें इस स्थिति की गंभीरता को समझना चाहिए। यह हैरतअंगेज है कि भाजपा और संघ परिवार के लोग सार्वजनिक चर्चाओं में अडानी ग्रुप के प्रवक्ता की तरह बोलते सुने जा रहे हैँ। इससे इस समूह पर उठे सवालों की पारदर्शी जांच और उचित कार्रवाई होने  की आशा लगातार कमजोर पड़ रही है। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है।

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