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नई पेंशन स्कीम : नहीं होने जैसा है

राजेंद्र शर्मा
हिमाचल प्रदेश के हाल के चुनाव में जनता के सत्ताधारी भाजपा के खिलाफ स्पष्ट जनादेश देने के बाद से पुरानी पेंशन बनाम नई पेंशन व्यवस्था के विवाद ने सभी प्रमुख राजनीतिक ताकतों को अपना नोटिस लेने के लिए बाध्य कर दिया है। इस अपेक्षाकृत छोटे हिमालयी राज्य में भाजपा के सत्ता से बाहर किए जाने के लिए राज्य सरकार कर्मचारियों के पुरानी पेंशन की बहाली की मांग के आंदोलन को, विशेष रूप से जिम्मेदार माना जा रहा है।

भाजपा की केंद्र तथा राज्य सरकारों के नई पेंशन व्यवस्था का खुलकर बचाव करने के विपरीत सिर्फ वामपंथी पार्टियों ने ही नहीं, मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने भी पुरानी पेंशन योजना की बहाली के राज्य सरकार कर्मचारियों के व्यापक आंदोलन को अपना समर्थन देकर वर्तमान तथा भूतपूर्व कर्मचारियों के बड़े हिस्से को अपने पक्ष में कर लिया। इस मुद्दे के प्रभाव का ही सबूत है कि इस चुनाव के बाद राज्य में आई कांग्रेस की नई सरकार ने पहला बड़ा निर्णय कर्मचारियों की पुरानी पेंशन बहाल करने का ही लिया है। छत्तीसगढ़ तथा राजस्थान की कांग्रेस सरकारें भी पहले ही पुरानी पेंशन की बहाली का ऐलान कर चुकी थीं। उसके बाद पंजाब तथा तमिलनाडु की विपक्षी सरकारों ने भी पुरानी पेंशन की बहाली का ऐलान कर दिया है।

पुरानी पेंशन की बहाली का मुद्दा भले ही हिमाचल जैसे छोटे पर्वतीय राज्य में चुनावी लिहाज से निर्णायक नहीं हो, फिर भी इतना तय है कि राजनीतिक पार्टियों के लिए और खास तौर पर विपक्षी राजनीतिक पार्टियों के लिए अब पुरानी पेंशन की बहाली की मांग को अनदेखा करना मुश्किल होगा।जाहिर है कि यह कोई संयोग ही नहीं है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा की दो प्रमुख प्रतिद्वंद्वी पार्टियों, समाजवादी पार्टी और बसपा, दोनों ने ही अपनी सरकार आने पर पुरानी पेंशन की बहाली का वचन दे दिया है, लेकिन पुरानी पेंशन में ऐसा क्या है, जो कमोबेश एक राय से देशभर के सरकारी कर्मचारी उसकी बहाली के लिए जोर लगा रहे हैं? दूसरी ओर, नई पेंशन में ऐसा क्या है, जो अपने चुनावी हितों के लिए चिर-सन्नद्ध भाजपा की मोदी सरकार, इस एक पूरे वर्ग की नाराजगी के बावजूद, नई पेंशन व्यवस्था को जारी रखने पर ही नहीं अड़ी हुई है, इस पर भी बजिद है कि पुरानी पेंशन को बहाल करने का फैसला ले चुकीं करीब आधा दर्जन राज्य सरकारें भी पुरानी पेंशन व्यवस्था को बहाल नहीं कर पाएं।

इसके लिए केंद्र सरकार ने अपना सबसे बड़ा हथियार इसकी जिद को बनाया है कि नई पेंशन व्यवस्था के अंतर्गत अब तक पुरानी पेंशन में संक्रमण चाहने वाले राज्यों के कर्मचारियों के पेंशन खातों में जो धन जमा हो गया है, उसे पुरानी पेंशन चालू करने के लिए, राज्यों को नहीं दिया जा सकता है। इसमें केंद्र सरकार ने कितना कुछ दांव पर लगा दिया है, इसका अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति के ताजा अभिभाषण पर बहस के अपने जवाब में भी इशारतन पुरानी पेंशन योजना का समर्थन करने वाली सरकारों की यह कहकर आलोचना की थी कि उन्हें सोचना चाहिए कि कहीं वे आने वाली पीढिय़ों पर असह्य बोझ तो नहीं डालने जा रही हैं!

तो क्या पुरानी पेंशन पर लौटना वाकई आज की पीढ़ी को खुश करने के लिए, आने वाली पीढिय़ों के भविष्य को अंधकारपूर्ण बनाने का मामला है? इस सवाल से स्वाभाविक रूप से सवाल निकलता है-जब पुरानी पेंशन अपनाई गई थी, तब किसी को अहसास नहीं हुआ कि ऐसी पेंशन आने वाली पीढिय़ों के भविष्य को अंधेरा करने जा रही है? पुरानी पेंशन व्यवस्था कहकर जिस तरह की व्यवस्था को अब नई व्यवस्था के करीब दो दशक के अनुभव के बाद लगभग सभी कर्मचारी वापस देखना चाहते हैं वह मूल रूप में तो स्वतंत्रता से भी पहले से चली आ रही थी। हां! स्वतंत्रता के बाद इसका काफी विस्तार जरूर हुआ था, लेकिन तब इसमें किसी को वैसे आर्थिक तबाही के बीज क्यों नहीं दिखाई दिए थे, जैसे आज सरकार और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष-विश्व बैंक जैसी वैश्विक वित्तीय एजेंसियां दिखाना चाहती हैं? इस सवाल का जवाब वास्तव में मुश्किल नहीं है। जवाब विकास की उस नवउदारवादी संकल्पना में मिलेगा, जो हमारे देश में पिछली सदी के आखिरी दशक के आरंभ में विधिवत अपनाई गई थी और जिसे निजीकरण, वैीकरण तथा उदारीकरण के त्रिशूल के बल पर, उसके बाद से ही लगातार आगे बढ़ाया जाता रहा है।

पश्चिमी पूंजीवादी दुनिया में इसकी शुरुआत और डेढ़-दो दशक पहले ही हो चुकी थी। इस नवउदारवादी संकल्पना का केंद्रीय सूत्र एक ही है। उत्पादन की लागत में मजदूरी का हिस्सा उत्तरोत्तर घटाते रहा जाए ताकि उत्पाद में अतिरिक्त मूल्य या पूंजीपति के मुनाफे का, हिस्सा ज्यादा से ज्यादा हो सके। ऊंची वृद्धि दर और अभूतपूर्व तेजी से विकास की सारी लफ्फाजी अपनी जगह, नवउदारवादी रास्ते का सार यही है। इसी का नतीजा है कि सेवानिवृत्ति के बाद समुचित पेंशन की समुचित व्यवस्था को, जिसे आजादी के बाद कई दशक तक एक स्वाभाविक व्यवस्था समझा जाता था, पहले असह्य बोझ बनाया गया और अब तो उसकी मांग को, एक प्रकार से अपराध ही बना दिया गया है। बेशक, पेंशन की समुचित व्यवस्था पूंजीवादी व्यवस्था में खुद-ब-खुद विकसित हो गई हो।

आठ घंटे के काम के दिन और हफ्ते में एक दिन की छुट्टी जैसी श्रम का अंधाधुंध दोहन करने पर अंकुश लगाने वाली अन्य व्यवस्थाओं की तरह ही सेवानिवृत्ति के बाद पेंशन की व्यवस्था भी मेहनतकशों के लंबे और कठिन संघर्ष के फलस्वरूप व्यापक रूप से अपनाई गई थी। इन संघर्ष में, पहले विश्व युद्ध के बाद के दौर में सोवियत संघ में मजदूरों के नेतृत्व में क्रांतिकारी बदलाव और दूसरे विश्व युद्ध के बाद, एक प्रभावशाली समाजवादी शिविर का उदय भी शामिल था, जिसके दबाव में व्यापक पैमाने पर निरुपनिवेशीकरण ही नहीं हुआ था, खुद विकसित पूंजीवादी दुनिया में कल्याणकारी राज्य का मॉडल स्वीकार किया गया था, जो मेहनतकशों के अधिकारों को बढ़ाता था। अचरज नहीं कि इस सदी के पहले दशक के पूर्वार्ध में शुरू हुई नई पेंशन योजना के करीब दो दशक के अनुभव से कर्मचारियों ने अच्छी तरह समझ लिया है कि यह नई पेंशन योजना की जगह, एक तरह से पेंशन नहीं योजना ही है। फिर हंगामा क्यों न बरपा हो।

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